Thursday 5 February 2015

रण -घड़ी ।


रण-घड़ी अब आई साथी कदम मिला कर चल
अंधेरों को गर है हरना तो ज्योत जला कर चल

शीश गिरेंगे लहू बहेगा धरा बना कर चल
तन मृदा को बचा न साथी घड़ा बनाकर चल

काल में कब कब  ऐसा अवसर बलिदानी का आया है ।
अमर ज्योत पे देख ले फिर भी सिंह भगत  नाम लिखाया है

सांस है थकती जाती दम भर के अब चल
आँखों में है मंजिल तेरे दौड़ लगा अब चल

लाख खड़े हैं संग तेरे अब जी जाने  मर जाने को
तू भी लड़ जा रण भूमि में क्यों रोके है दीवाने को

मातृ भूमि का कर्ज चुकाने जो जो शीश कटाएगा
है सौगंध इस धरती की वो फिर से वापस आएगा
है सौगंध इस धरती की वो फिर से वापस आएगा। ...